विज्ञान के जानकारों का व्यवहार असामान्य क्यों होता है?

इस लेख को लिखने का मेरा उद्देश्य यह बिलकुल नहीं है कि मैं किसी भी वैज्ञानिक के आचरण या उनके व्यवहार को सामाजिक चर्चा का विषय बनाऊं, इसीलिए किसी भी वैज्ञानिक के व्यवहार को न ही चर्चा का विषय बनाया गया है और न ही लेख का शीर्षक 'विज्ञान के जानकार असामान्य व्यवहार क्यों करते हैं?' रखा गया है। क्योंकि तब मुझे वस्तुनिष्ठ चर्चा के बीच वैज्ञानिकों के व्यवहार के उदाहरण देने पड़ते।
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व्यक्तिगत रूप से एक वैज्ञानिक का व्यक्तित्व असाधारण या उसका व्यवहार असामान्य हो सकता है परंतु जातिवाचक संज्ञा के रूप में वैज्ञानिक न ही असाधारण व्यक्तित्व के धनी होते हैं और न ही असामान्य व्यवहार करते हैं, क्योंकि विज्ञान की धारणा के अनुसार किसी भी धर्म, जाति, उम्र, लिंग या राष्ट्रीयता का व्यक्ति वैज्ञानिक दावों को किसी भी देश-काल के लिए परखकर या दोहराकर सिद्ध कर सकता है तथा किसी भी विचार या व्यवहार के औसतन नहीं होने का अर्थ असामान्य (ऐब्नार्मल) होना नहीं होता है। इसीलिए विज्ञान के जानकारों के व्यवहार को सामान्य से भिन्न होने पर असामान्य बतला देना अनुचित है।


निम्न दो कारणों से वैज्ञानिकों और विज्ञान के जानकारों का व्यवहार सामान्य से भिन्न होता है।
पहला : सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र की तुलना में प्राकृतिक विज्ञान के क्षेत्र में 'कारण का विचार' भिन्न तरह से प्रभावी होता है। सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में 'प्रेरणा और विवशता' दो प्रमुख कारक होते हैं। यहाँ तक कि 'अनुपस्थिति' को भी सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में कारक मान लिया जाता है, जो वैज्ञानिकों की समझ से बाहर का विषय है। जी हाँ, क्योंकि बिना संयोग या कार्य के प्रभाव परिलक्षित नहीं हो सकते हैं। प्राकृतिक विज्ञान के अंतर्गत वैज्ञानिक समुदाय केवल 'एक कारण का एक निश्चित प्रभाव' को जानता-समझता है और इसी अभिधारणा पर कार्य करते हुए परिणाम ज्ञात करता है।

कारणाभावात् कार्याभावः।
न तु कार्याभावात् कारणाभावः। (वैशेषिक दर्शन के सूत्र 1,2.1 और 1,2.2.)
अर्थात् कारण के बिना प्रभाव उत्पन्न नहीं होता है। प्रभाव की अनुपस्थिति में ज़रूरी नहीं है कि कारण की अनुपस्थिति हो।

दूसरा : विज्ञान के जानकारों और वैज्ञानिकों का ज्ञान व्यक्तिनिष्ठ न होकर वस्तुनिष्ठ होता है, फलस्वरूप उनका व्यवहार औसतन नहीं रह जाता है। वे किसी भी चीज को केवल इसलिए नहीं स्वीकार करते हैं क्योंकि वे भी ऐसा ही मानते हैं। फिर वे केवल अपने बारे में ही नहीं सोचते हैं। वे व्यक्तिगत अज्ञान और असमर्थ के अलावा मानव-जाति के सामूहिक अज्ञान और असमर्थ को भी स्वतंत्र मन से स्वीकार करते हैं जिससे कि मानव-जाति और अधिक ज्ञानी और सक्षम बन सके। समाज में वस्तुनिष्ठ ज्ञान को बढ़ावा देने से शिक्षा में समग्रता, शासन में पारदर्शिता, प्रशासन की सफलता, कानूनी निरपेक्षता, चिकित्सा के प्रभाव और निष्पक्ष न्याय को सुनिश्चित किया जा सकता है।

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