गणित किस प्रकार की भाषा है?

प्रो. एम. पी. कोठारी की ‘गणित शिक्षण’ पुस्तक से दार्शनिक-गणितज्ञ बर्ट्राण्ड रसेल (Bertrand Russell) के अनुसार “यद्यपि गणित तर्क शास्त्र की एक शाखा नहीं है, फिर भी वह एक तर्कपूर्ण भाषा है।” उदाहरण के लिए, 20 = 1 या न0 = 1 (जहाँ न = सभी संख्याएँ)। यह कैसे संभव है कि 30 = 1 और 40 = 1 भी सही है? क्योंकि गणित एक तार्किक भाषा है। 20 = 1 को हम 2(5-5) = 1 लिख सकते हैं जिसे 25/25 = 1 लिखा जा सकता है। जहाँ 25/25 का मान 1 होता है। इसी तरह से 20 = 30 = 40 = N0 = 1 सिद्ध हो जाता है। तार्किक भाषा के रूप में गणित अन्य भाषाओं की तुलना में इस तरह भिन्न है कि गणित में कहे गए कथनों का केवल और केवल एक ही अर्थ निकलता है। अर्थात् 1 + 1 = 2 होता है फिर चाहे वह पेड़ हों या पेन, सजीव हों या निर्जीव, जानवर हों या पक्षी, इसलिए चर्चा किस बारे में हो रही है, गणित जगत् में यह जानना असंभव होता है। इस तरह से गणित द्वारा अस्तित्व या घटनाओं की वस्तुनिष्ठ अभिव्यक्ति की जाती है, इसलिए यह विज्ञान में सहयोगी है, परंतु अनावश्यक बिंदुओं को अपने में समावेशित न करने से यह (भाषा) आम लोगों द्वारा बोली-समझी नहीं जाती है। इस विषय पर खगोलविद् निकोलस कोपर्निकस ने भी कहा है कि “गणित, गणितज्ञों के लिए लिखी जाती है।” सूत्रों, समीकरणों या चित्रों द्वारा मूर्त से अमूर्त को जानने और अमूर्त ज्ञान को मूर्त रूप देने में गणित सहायक सिद्ध होता है, जिससे कि गणित द्वारा प्रकृति के रहस्यों को पढ़ा जा सके और हम अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए तकनीकों के निर्माण में प्रकृति को निर्देशित कर सकें।


भाषाविदों के द्वारा कहा जाता है कि “जो भाषा जितनी अधिक सरल और आम लोगों के द्वारा बोली या लिखी जाती है। उस भाषा में कही गई बातों के उतने ही अधिक अर्थ निकलते हैं।” फलस्वरूप उस भाषा में कही गई बातों की संदिग्धता की संभावना बढ़ जाती है। चूँकि घटना या कार्य के ‘कारण’ को गणितीय भाषा में व्यक्त करना असंभव है और गणित द्वारा अस्तित्व या घटनाओं की वस्तुनिष्ठ अभिव्यक्ति होती है, इसलिए गणित आम बोलचाल की भाषा न होते हुए भी विज्ञान की भाषा है अर्थात् वैज्ञानिक सत्य को निरूपित करने या प्रकृति के परिदृश्यों को व्यक्त करने में गणित, भाषा के रूप में प्रयुक्त होती है। कम्प्यूटर वैज्ञानिक और गणितज्ञ जॉन जॉर्ज केमेनी (Kemeny) के अनुसार “विज्ञान में गणित भाषा का प्रयोग किया जाता है, क्योंकि यह परिशुद्ध एवं परिपूर्ण होती है।”


प्रकृति के नियम गणित की भाषा में लिखे गये हैं... इन प्रतीकों त्रिभुज, वृत्त व अन्य ज्यामितीय आकृतियों और आँकड़ों की सहायता के बिना एक शब्द भी बूझना असंभव है। ― महान् खगोलशास्त्री गैलीलियो गैलिली (‘दी अस्सायर’ 1623 पुस्तक से)


           गणित को विज्ञान या प्रकृति की भाषा कहना उचित है परंतु गणित को महज एक भाषा कहना ग़लत है, क्योंकि गणित, हिंदी, अंग्रेजी या अन्य भाषाओं की तरह नहीं है। भाषाओं की अपनी पद्धति नहीं होती है, इसलिए भाषाओं के द्वारा अपनी उपलब्धियों या निष्कर्षों (ज्ञान) को संचित रखना असंभव होता है, परंतु गणित की अपनी पद्धति होती है, इसलिए वह भाषा के रूप में भी अपनी उपलब्धियों या ज्ञान को बनाए रखती है। एकीकरण की सम्भावना और पद्धति होने के कारण ही गणित, विज्ञान की एक भाषा है, जिससे कि ठीक-ठीक, सत्य क्या और कैसा है, को निरूपित किया जा सकता है परंतु उस सत्य का ‘कारण’ गणितीय भाषा द्वारा निरूपित नहीं होता है।



           गणित में हम 1 + 1 = 2 जानते हैं परंतु यह एक गणितीय सत्य नहीं है। यह मात्र एक गणितीय निरूपण है, जो निम्नलिखित तीन शर्तों पर निर्भर करता है ̶ पहली शर्त : संख्याएँ 1 और 2 गणनीय चिह्न के रूप में प्रयोग में लाई गई हैं; दूसरी शर्त : ‘+’ एक उपस्थिति संक्रिया के रूप में परिभाषित किया गया है; तीसरी शर्त : सांकेतिक चिह्न 1 और 2 वस्तुओं की उपस्थिति को निरूपित कर रहे हैं; न कि वस्तुओं की स्थितियों या घटनाओं को निरूपित कर रहे हैं। इन (तीनों) शर्तों की संख्याओं या उनके अर्थों में बदलाव करने से यह गणितीय निरूपण 1 + 1 = 2 से बदलकर 1 + 1 = 0, 1 + 1 = 1, 1 + 1 = 3, 1 + 1 = 10, या 1 + 1 = 11 हो जाता है। एक गणितज्ञ भलीभांति जानता है कि ऐसा गणित के भाषा होने के कारण संभव है, परंतु ऐसा कब और कैसे संभव है यह केवल एक वैज्ञानिक भलीभांति बता सकता है। 1 + 1 = 0 के गणितीय निरूपण का अर्थ है पदार्थ और प्रति-पदार्थ के आपस में संयोग होने का परिणाम। 1 + 1 = 1 के गणितीय निरूपण का अर्थ है किसी एक रंग का उसी रंग पर अधिव्यापन। 1 + 1 = 3 के गणितीय निरूपण का अर्थ है एक समान प्रजाति के सदस्यों द्वारा तीसरे सदस्य का जन्म। 1 + 1 = 10 के गणितीय निरूपण का अर्थ है द्वि-आधारी संख्या पद्धति। 1 + 1 = 11 के गणितीय निरूपण का अर्थ है बिना किसी संख्या पद्धति के प्रतीक चिह्न के रूप में उपस्थिति को दर्शाना। इस तरह से जब भी हम 2 + 2 = 4 या 4 + 6 = 10 जैसे सार्वभौमिक निरूपणों पर चर्चा करें; तो निम्नलिखित तीनों शर्तों को सदैव ध्यान में रखना चाहिए - पहली शर्त : संक्रियाओं के चिह्न परिभाषित होने चाहिए; दूसरी शर्त : संख्याएँ गणनीय चिह्नों के रूप में प्रयोग होनी चाहिए; तीसरी शर्त : सांकेतिक या चित्रमय चिह्नों का संबंध वस्तुओं की उपस्थिति को निरूपित करना चाहिए; न कि वस्तुओं की स्थितियों या घटनाओं को निरूपित करना चाहिए। इन तीनों शर्तों की उपस्थिति में पाठकों को भी समझ में आ रहा होगा कि 1 + 1 = 2 गणितीय सत्य न होकर एक गणितीय निरूपण है।


संख्याएँ और आकृतियाँ कभी भी किसी वास्तविक-स्थूल वस्तुओं, स्थितियों या घटनाओं को नहीं दर्शाती हैं। वे तो बस प्रतीक या सांकेतिक चिह्नों के रूप में होती हैं, जो चेतना से रहित शून्य में किसी जटिल पहेली के अलग-अलग हो गए टुकड़ों की भाँति मंडराती रहती हैं। उनमें से किन-किन (चिह्नों) को एक साथ रखना ज़रूरी है यह इस बिंदु पर निर्भर करता है कि हमारी समस्याओं या उनके निरूपणों की मूल आवश्यकताएँ क्या-क्या हैं। इन्हीं आवश्यकताओं की पूर्ति करके समस्याओं के कलेवरों को नया अर्थ दे दिया जाता है, जिससे समस्याओं का समाधान तो नहीं होता है परंतु समस्याएँ सरल हो जाती हैं। समस्याओं को नए अर्थ के साथ समझना आसान हो जाता है। तत्पश्चात प्रतिरूपों या प्रतिमानों द्वारा हम परिभाषित कारकों, घटकों और उनके प्रभावों के संबंधों या फिर वैज्ञानिक पद्धतियों में असंगतियों को ढूँढ़ निकालते हैं, जिससे कि वैज्ञानिक खोज करने की दिशा में तार्किक-सार्थक प्रश्न किए जा सकें। इस प्रकार गणित, विज्ञान को सहायता प्रदान करता है।


गणित, भाषा के अलावा भी यदि कुछ हो सकती है, तो इसके पीछे एक व्यावहारिक तथ्य दिया जा सकता है कि जिस किसी मशीन में कलपुर्जे के दांतों की संख्या एक अभाज्य संख्या होती है ऐसी मशीनों से न केवल कम आवाजें आती हैं बल्कि टूटफूट भी कम होती है। इस तथ्य से ऐसा मालूम होता है कि गणित न केवल विज्ञान की भाषा है बल्कि प्रकृति की भी भाषा है, इसलिए गणितज्ञ गणित में ईश्वर के होने तक को निगमित करते हैं, परंतु तब यह प्रश्न उठता है कि क्या मानव के विलुप्त हो जाने से गणित भी विलुप्त हो जाएगी? क्या प्रकृति ऐसे ही कार्य करते रहेगी? इन दोनों ही प्रश्नों का उत्तर है, हाँ, क्योंकि गणित, प्रकृति को निर्देशित या संचालित नहीं करता है।


यह लेख 'आग से अंतरिक्ष तक' पुस्तक का अंश है।

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