होमो डेयस समीक्षा: हरारी अपना फैलाया रायता अंततः समेट लेते हैं

पुस्तक का नाम: होमो डेयस (Homo Deus in Hindi)
उपशीर्षक: आने वाले कल का संक्षिप्त इतिहास
लेखक: युवाल नोआ हरारी
अनुवादक: मदन सोनी
प्रकाशक: मंजुल पब्लिशिंग हॉउस, भोपाल
ISBN: 978-93-89143-13-3
समीक्षक: - अज़ीज़ राय
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मानव-जाति का पिछले 200 वर्षों में अभूतपूर्व दर से उन्नति करने का सबसे महत्त्वपूर्ण कारण ‘विद्वता का स्थान विशेषज्ञता द्वारा’ ले लिया जाना है जिससे कि ज्ञान और वस्तुओं के उत्पादन में चरघातांकी वृद्धि हुई है। आधुनिक समय में ‘धार्मिक-पोथियाँ x तर्क’ का स्थान ‘अनुभवपरक जानकारियाँ x गणित’ ने ले लिया है। प्रो. हरारी कहते है कि अनेक क्षेत्रों में यंत्रों द्वारा मनुष्यों का विस्थापन या अप्रासंगिक हो जाना इसलिए संभव हुआ है, क्योंकि विद्वता का स्थान विशेषज्ञता ने ले लिया है। यंत्र दरअसल मनुष्यों को विस्थापित नहीं करते हैं बल्कि वे विशेषज्ञता द्वारा उपयोग में लाए जाने वाले संबंधित एल्गोरिदम के लिए बिना थके-तेज और सटीक परिणाम देने वाले विकल्प उपलब्ध करा देते हैं, इसलिए यंत्र बूझ लिये गए एल्गोरिदम द्वारा विशेषज्ञता का स्थान ले लेते हैं; न कि विद्वता को विस्थापित करते हैं। उदाहरण के लिए, एक अन्य स्रोत के माध्यम से हरारी कहते हैं कि पुरातत्त्वविदों को विस्थापित करने की संभावना केवल 0.7% है।

प्रो. युवाल नोआ हरारी अपनी दूसरी पुस्तक ‘होमो डेयस’ में मनुष्यों के देवता बनने की संभावनाओं और संबंधित परिदृश्यों पर चर्चाएँ करते हैं। पुस्तक को पढ़ने से पहले इसके उपशीर्षक ‘आने वाले कल का संक्षिप्त इतिहास’ ने मेरा ध्यान आकर्षित किया और तब मेरा सहज प्रश्न था कि इतिहास गुजरे हुये कल के बारे में होता है तो प्रस्तुत पुस्तक में आने वाले कल का इतिहास कैसे हो सकता है? हरारी से इतनी बड़ी ग़लती कैसे हो गई! कहीं यह संपादक या पुस्तक-संयोजक के द्वारा की गई ग़लती तो नहीं है! यह प्रश्न इसलिए महत्त्वपूर्ण था, क्योंकि प्रो. हरारी की पहली पुस्तक सेपियन्स उनके इतिहासकार होने का ठोस प्रमाण उपलब्ध कराती है। सेपियन्स पुस्तक का एक पाठक होने के नाते मैं उनसे इस तरह की ग़लती न हो, की अपेक्षा रख ही सकता था। और आखिरकार पुस्तक के शुरुआती अध्याय में ही मुझे मेरे प्रश्न का उत्तर मिल गया।

प्रो. हरारी ने इस पुस्तक में इतिहास के अध्ययनों के उद्देश्य गिनाए हैं। जहाँ विज्ञान में हम कार्ल मार्क्स के ऐतिहासिक-भौतिकवाद को उनकी भविष्यवाणियों के ग़लत होने के कारण छद्म-विज्ञान कहते हैं। वहीं प्रो. हरारी कहते हैं कि सामाजिक विज्ञान की भविष्यवाणियाँ पूरी तरह से ग़लत नहीं होती हैं बल्कि वे अपने दावों से संबंधित मनुष्यों के संज्ञान में आने से उनके व्यवहार को बदल देती हैं जिससे कि वे ग़लत साबित हो जाती हैं। अर्थात इस तरह से, इतिहास के अध्ययन से किये गए दावे या भविष्यवाणियाँ अपने महानतम उद्देश्य को पूरा कर ही लेती हैं, क्योंकि इतिहास के अध्ययन का सामान्य उद्देश्य यही कहता है कि विनाशकारी परिणामों या बंधनों से कैसे मुक्त हुआ जाए।

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आगामी भविष्य के वैकल्पिक परिदृश्यों पर चर्चा करना, प्रो. हरारी के अनुसार इतिहास के अध्ययन का ही एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है और प्रस्तुत पुस्तक उन्हीं परिदृश्यों पर चर्चाएँ करती है, जो मानव-जाति के इतिहास के अध्ययन के आधार पर संभव हो सकते हैं। जहाँ कुछ लोगों को अपनी बात स्पष्ट कहने में समस्या होती है और उनकी प्रतिक्रिया में कुछ लोग सीधे मुँह यह कह देते हैं कि आखिर कहना क्या चाहते हो! वहीं प्रो. हरारी अपने लेखन में दस से भी अधिक विद्याओं, शास्त्रों और विषयों के इतिहास पर चर्चाएँ करते हुए वैकल्पिक परिदृश्यों की व्याख्याएँ प्रस्तुत करते हैं और अंततः, अपने दावे के अभिप्राय को स्पष्ट कर देते हैं। इसलिए मैंने कहा है कि हरारी अपना फैलाया रायता अंततः समेट लेते हैं।

हरारी एक इतिहासकार के रूप में अपनी पहली पुस्तक ‘सेपियन्स’ में केवल ऐतिहासिक तथ्यों और तुलनात्मक अध्ययनों के बारे में लिखते हैं जबकि ‘होमो डेयस’ पुस्तक में वे ठोस आधार के लिए तथ्यों और वैज्ञानिक प्रयोगों के निष्कर्षों के साथ-साथ संबंधित स्रोतों के बारे में चर्चाएँ करते हैं क्योंकि इस बार वे भविष्य के बारे में दावे कर रहे हैं, जो संभवतः दार्शनिक इम्मान्यूअल कांट और दार्शनिक कार्ल मार्क्स के समान ही क्रमशः समाजशास्त्र और इतिहास को विज्ञान की एक शाखा के रूप में प्रतिष्ठित करने का प्रयास हो। ऐसा मानने के पीछे एक ठोस कारण यह भी है कि साधारणतः एक इतिहासकार इतिहास को व्यक्तिगत तथ्यों और व्याख्याओं के रूप में प्रस्तुत करता है। जबकि प्रो. हरारी के तथ्य विशिष्ट और वस्तुनिष्ट होते हैं। सेपियन्स और होमो डेयस में अधिकतर विषय-वस्तु एक समान है, इसके बावजूद चेतना, जैवप्रोद्योगिकी, कृत्रिम बुद्धिमत्ता और आगामी मनुष्यों को बारीकी से समझने में इस विषय-वस्तु का उपयोग किया गया है। जैसे कि ख़ुशी का वस्तुनिष्ट स्वरुप, मानववाद का वर्गीकरण और वास्तविकता के तीन रूप आदि।

इसमें कोई दो मत नहीं है कि सेपियन्स और होमो डेयस दोनों पुस्तकें मनुष्य को व्यापक दृष्टिकोण के लिए प्रेरित करती हैं बल्कि वे व्यापक दृष्टिकोण के सहयोग से समस्याओं के निदान के लिए अंतरवैयक्तिक व्यवस्थाओं को व्यापक बनाने का सुझाव देती हैं। व्यापक दृष्टिकोण को यह दोष सदैव दिया जाता है कि वह व्यावहारिक नहीं है या वस्तुस्थिति से अनभिज्ञ है इसलिए इतनी बड़ी-बड़ी बातें और दावे कर पा रहा है, परंतु इन दोनों पुस्तकों के प्रकरण में यह कहना सर्वथा ग़लत होगा। विज्ञान के विषय में प्रो. हरारी से छोटी-छोटी ग़लतियाँ हुईं हैं। इसके बावजूद उन्हें इसलिए अनदेखा किया जा सकता है क्योंकि वह पुस्तक का मूल विषय नहीं था या उन पर और अधिक लिखना पुस्तक के धाराप्रवाह से समझौता करना होता।

प्रो. हरारी का लेखन पक्षपात रहित मालूम होता है, क्योंकि वे एक सिद्धांत, विचारधारा या मत के प्रति अधिक दृढ़ होने से भिन्न या विरोधी सिद्धांतों, विचारधाराओं या मतों के बीच बढ़ती शत्रुता को नए विचारों और दृष्टिकोण के ज्ञान से कम करने का प्रयास करते हैं। इस पुस्तक को पढ़ने से पहले तक आतंकवाद तथा इतिहास को नए सिरे से लिखने की प्रवृत्ति से मुझे बहुत अधिक चिढ़ थी, क्योंकि यह दोनों प्रवृत्तियाँ समाज में आंतरिक टकरावों को उत्पन्न करती हैं, जिसे उनके लेखन ने अब बदल दिया है। वे लिखते हैं कि मनुष्य अपने चारों ओर व्याप्त एक मिलीजुली विशिष्ट धार्मिक-सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक व्यवस्थाओं में जीवन जीते हैं और उन्हीं को अपनी पहचान मानते हैं। इस तरह से वे उनसे बंधे होते हैं और भविष्य की दुनिया को बदले स्वरूप में देखने के लिए इतिहास को नए सिरे से लिखना जरूरी होता है। किंतु तब निश्चित रूप से हमारे दिमागों में यह आशंका बन जाती है कि कहीं इतिहास को छेड़ने से स्थिति और अधिक न बिगड़ जाए या हम दोबारा आदिम व्यवस्थाओं की ओर अग्रसर न हो जाएँ। इस मुद्दे पर प्रो. हरारी इतिहास और इतिहासबोध के भेद को न केवल अच्छे से समझाते हैं बल्कि बैर की भावना और सामाजिक पतन की आशंका को मिटाने में सफल हुए हैं।

ब्राएस विरोधाभास (Braess's paradox) का नाम लिये बिना प्रो. हरारी समझाते कि आखिर मशीनें कैसे मनुष्यों की क्रियाकलापों को निर्देशित और नियंत्रित कर सकती हैं। इसी तरह से मैट्रिक्स फ़िल्म का नाम लिये बिना प्रो. हरारी समझाते हैं कि आखिर मानव-जाति कैसे और किन सामूहिक ग़लतियों या अज्ञान के कारण इस दुनिया से अप्रासंगिक हो जाएगी। दरअसल अप्रासंगिकता की यह स्थिति जैव-उद्विकास के सिद्धांत को भुलाकर के प्रस्तुत की गई है क्योंकि यह तभी संभव है जबकि भविष्य में भी अप्राकृतिक कारणों के किसी अन्य तरीके से मानव-जाति के पूर्णतः समाप्त हो जाने की आशंका न हो। 

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