भविष्य के भूत हो जाने से उत्पन्न भ्रम

अंतर्राष्ट्रीय सेतु पत्रिका में पूर्व प्रकाशित लेख

सामाजिक क्रांतियों से मूर्त जगत में खलबली मचती है। जबकि वैज्ञानिक क्रांतियाँ अमूर्त जगत में खलबली मचाती हैं। सामाजिक क्रांतियाँ समाज में बड़े पैमाने में बदलाव करती हैं। जबकि वैज्ञानिक क्रांतियाँ पद्धति में व्यापक बदलाव करती हैं। जिस प्रकार समाज एक व्यवस्था है वैसे ही पद्धति ज्ञान की एक अमूर्त व्यवस्था है। इस अमूर्त व्यवस्था में समय विशेष के लिए मानव जाति का सम्पूर्ण ज्ञात ज्ञान आपस में संगत होता है। परन्तु जब कोई घटना या उदाहरण विरोधाभास के रूप में मानव जाति के संज्ञान में आता है, तब उसी समय से वैज्ञानिक क्रांति की रूपरेखा तैयार होने लगती है। इस तरह से प्रत्येक वैज्ञानिक क्रांति बदलाव के साथ मानव जाति के ज्ञान को एक नया स्तर प्रदान करती हैं। वैज्ञानिक क्रांति के नये विचार पहले की अपेक्षा अधिक विकसित होते हैं। विज्ञान दार्शनिक थॉमस कूह्न ने समाज द्वारा ज्ञान की एक पद्धति को छोड़कर दूसरी विकसित पद्धति को अपनाये जाने को पैराडाइम शिफ्ट (Paradigm shift) कहा है। पैराडाइम शिफ्ट से हमारे विचार और दुनिया को देखने का तरीका दोनों बदल जाते हैं और तब इन नये विचारों से प्राप्त होने वाला ज्ञान अधिक सटीक और उपयोगी सिद्ध होता है।

समय के बारे में मानव जाति के विचार निरंतर बदलते और विकसित होते आये हैं। इसी का परिणाम है कि आज हम 1 सेकेंड के लाख वे. हिस्से की सटीक गणना करने में सक्षम होने से खगोल विज्ञान की उपलब्धियाँ हासिल कर पा रहे हैं। समय के बारे में भविष्य, वर्तमान और भूत का विचार विज्ञान की नज़रों से अब वैसा नहीं रह गया है जैसा कि वर्तमान समाज का प्रत्येक व्यक्ति समय को एक बहती नदी के रूप में देखता है। उसमें वह एक दिशा पाता है, जिस पर मनुष्य कविता लिखता या साहित्य का सृजन कर रहा है। जबकि समय के बारे में विज्ञान की वास्तविकता अब मनुष्य के सहजबोध से भिन्न हो गयी है। समय के बारे में मनुष्य का सहजबोध अब उपयोगी नहीं रह गया है, वह तात्कालिक समस्याओं को सुलझाने या घटित घटनाओं की व्याख्या करने में सक्षम नहीं है, इसलिए विज्ञान ने उसे त्याग दिया है। विज्ञान आज के सहजबोध से जो कुछ ग्रहण कर सकता था, वह सब उसने त्यागने से पहले ग्रहण कर चुका है। समय के बारे में अब यह मानकर केवल कविताएँ लिखीं जा सकती हैं कि समय का यह विचार कभी विज्ञान के लिए सच और उपयोगी था। परन्तु अब वह सच नहीं है। क्योंकि अब विज्ञान समय के विकसित विचारों के द्वारा ज्ञान सृजन कर रहा है। इस तरह से विज्ञान में पुराने विचारों का या तो लोप हो गया है या फिर वे नये विचारों में समाहित हो गये हैं। समाज द्वारा नये विचारों को देर से स्वीकार करने की वजह से वह विचार अब भी समाज में सहजबोध के रूप में बने हुये हैं।


समस्या तो तब समझ में आयी, जब 106 वें. भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में कुछ विद्वानों ने समय के सहजबोध से निर्मित भ्रम में फसकर ऊलजलूल दावे किये, जिसकी आलोचना में अन्य विद्वानों ने केवल अपना विरोध जताया; न कि अपने दायित्व का पालन करते हुये, विरोध को विज्ञान-दर्शन के द्वारा समझाया और न ही वास्तविकता को सामने लाकर भ्रम के कारण को विस्तार दिया। जिससे कि समाज में अब भी भ्रम बना हुआ है और कुछ लोग भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में किये गये दावों को राजनीतिक मुद्दों से जोड़कर देख रहे हैं। क्योंकि पिछले कुछ वर्षों से न केवल इसी तरह के दावों की संख्या बढ़ी है बल्कि वर्तमान सरकार के द्वारा इन दावों को बढ़ावा मिलता हुआ दिख रहा है।

विज्ञान-गल्प साहित्य की एक विधा है। विज्ञान-कथा के पिछले 200 वर्षों के इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो भविष्य में सच साबित हुये हैं। स्पष्ट है कि इस विधा में अन्य कहानियों की तरह वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित बीते कल का चित्रण नहीं किया जाता है और न ही केवल कथा के माध्यम से वैज्ञानिक खोजों और उपलब्धियों का प्रचार-प्रसार किया जाता है; बल्कि विज्ञान-कथा के माध्यम से समाज के आने वाले कल की तस्वीर खीची जाती है। जब कथाकार को किसी वैज्ञानिक खोज का पता चलता है तो वह उस खोज के संभावित सकारात्मक-नकारात्मक सामाजिक प्रभावों के विषय में कल्पनाओं (Fantasy) के घोड़े दौड़ाने लगता है, परन्तु यह कथाएँ लौकिक और परिकल्पनाओं (Hypotheses) पर आधारित होती हैं। यह संभावित सामाजिक प्रभाव उस खोज के द्वारा आविष्कार की पूर्व भविष्यवाणी, उसके दुष्परिणामों, प्राकृतिक-सामाजिक विपदाओं या उन्नत तकनीक की भूमिका के बारे में होते हैं। इसीलिए विज्ञान-कथा के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वह कथा भविष्य की सटीक तस्वीर खीचे, जो भविष्य में सच साबित हो। परन्तु विज्ञान-कथा के संभावित सामाजिक प्रभाव समाज के आने वाले कल की ऐसी तस्वीर के बारे में कदापि नहीं होते हैं जिसे वैज्ञानिक खोजों के प्रभाव के बजाय राजनीतिक या आर्थिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए लिखा गया हो।

आज का विज्ञान-गल्प आने वाले कल का वैज्ञानिक तथ्य है। ― प्रसिद्ध विज्ञान कथाकार जैव-रसायनशास्त्री आइजक असिमोव

विज्ञान-गल्प की नियति है कि वह वैज्ञानिक तथ्य हो जाये और तब वैज्ञानिक तथ्य यह दर्शाता और सिद्ध करता है कि भूतकाल में कही गयी कथा विज्ञान-गल्प थी। यह तो भविष्य ही तय करता है कि कही गयी कथा विज्ञान-गल्प है या नहीं है। यदि वर्तमान सामाजिक परिदृश्य के तथ्य पहले कही गयी किसी कथा को विज्ञान-गल्प सिद्ध कर भी देते हैं तो इससे यह सिद्ध नहीं होता है कि जिस समय कथा कही गयी थी, उस समय का सामाजिक परिवेश आज के समान ही या उन्नत था।

यद्यपि यदि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में उन्नत तकनीक संबंधी दावे विज्ञान-गल्प सिद्ध करने के लिए प्रस्तुत नहीं किये गये हैं तो जरूर से वे इतिहास का हिस्सा होंगे। जिसके सत्य होने के लिए ऐतिहासिक प्रमाणों (पुरातात्विक भौतिक या साहित्यिक) की आवश्यकता होती है। विज्ञान कांग्रेस में अब मजेदार मोड़ यह आ जाता है कि दावेदारों के पास दावे से सम्बंधित एक भी पुरातात्विक भौतिक प्रमाण (ऐतिहासिक प्रमाणों का प्रथम प्रकार) नहीं हैं, जबकि साहित्यिक प्रमाण (ऐतिहासिक प्रमाणों का द्वितीय प्रकार) के लिए तकनीक सम्बन्धी निर्माण की कार्यविधि (process), आवश्यक पदार्थ, उसकी मात्रा तथा यंत्रों का प्रकार्य (function) और उसकी कार्यक्षमता आदि के विषय में लिखित विज्ञान-साहित्य होना चाहिए, जो कि वह भी उपलब्ध नहीं है।

आज का विज्ञान आने वाले कल की तकनीक है। ― सैद्धांतिक भौतिकशास्त्री एडवर्ड टेलर (‘द लेगसी ऑफ़ हिरोशिमा’ - 1962 पुस्तक से)

अब बिना ऐतिहासिक प्रमाणों के समाज यह कैसे स्वीकार करे कि प्राचीन समय का समाज आज के समाज के समान उन्नत था। क्या केवल इसलिए कि दावेदारों के द्वारा ऐसा दावा किया जा रहा है और वे विज्ञान के विशेषज्ञों के ऊँचे पदों में शोभायमान हैं। जबकि दावेदारों के पास न ही उस समय की उन्नत तकनीक होने के कोई भौतिक प्रमाण हैं और न ही तात्कालिक समाज को सम्बंधित विज्ञान की जानकारी देने वाला विज्ञान-साहित्य का साहित्यिक प्रमाण उपलब्ध है।

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