विज्ञान, प्रत्यक्ष है परंतु सहजबोध नहीं है।

‘विज्ञान प्रत्यक्ष के बारे में है’, लोगों को इसे स्वीकारने में कोई शंका नहीं है, क्योंकि प्रत्यक्ष प्रमाण को अनदेखा करना संभव नहीं है। परंतु यही प्रत्यक्ष का भविष्य जब किसी घटना में शामिल होकर किसी और के माध्यम से जानकारी रूप में सामने आए, क्या तब भी उस प्रत्यक्ष ज्ञान को प्रमाण मानकर स्वीकार किया जा सकता है? उत्तर है हाँ; शर्त केवल यह है कि जिस भी व्यक्ति के माध्यम से जानकारी हम तक आए, वह जानकारी उस व्यक्ति का सहजबोध न हो, क्योंकि प्रत्यक्ष वर्तमान भी भ्रम उत्पन्न करता है। उदाहरण के लिए, दिन के समय रेगिस्तान में बनने वाला पेड़ों का उल्टा प्रतिबिम्ब (मरीचिका :Mirage), वहाँ जलाशय होने का आभास कराता है। ठंडे प्रदेशों के समुद्रीय आकाश में बनने वाला जहाजों का उल्टा प्रतिबिम्ब या दूरस्थ इटली के दक्षिणी किनारे के गाँव का उल्टा प्रतिबिम्ब मनुष्य को चमत्कृत और भयभीत कर देता है। सीधी छड़ का कुछ भाग पानी में डूबने से वह भाग मुड़ा हुआ प्रतीत होता है और खगोलीय गुरुत्वीय लेंस के प्रभाव में अंतरिक्ष में एक ही तारे की दो भिन्न स्थितियाँ मालूम होती हैं आदि, जिसे देखकर आम व्यक्ति के साथ-साथ एक वैज्ञानिक भी धोखे में आ जाता है। शर्त केवल इतनी-सी है कि उन वैज्ञानिकों से यह पूछा जाए कि बताइए उन्हें क्या दिख रहा है? अर्थात वह प्रत्यक्ष के पीछे के सत्य को बताने के बजाय केवल सहजबोध का वर्णन करें, तब हम देखेंगे कि वे वैज्ञानिक भी वही वर्णन कर रहें हैं जो कि एक आम इंसान करता है, परंतु चूँकि वैज्ञानिक समुदाय इस प्रत्यक्ष के पीछे के भ्रम के कारण जानता है, इसलिए वह प्रत्यक्ष के पीछे के सत्य को जानता है; और इन्हें दृष्टिभ्रम कहता है।


विज्ञान, इसी तरह के और भी कई भ्रमों तथा उनके पीछे के कारण और घटकों को जानता है; जो भ्रम हमारी (पाँचों) इन्द्रियों से उत्पन्न होते हैं; जैसे कि हमारे कान डॉपलर प्रभाव के प्रति सहज हो चुके हैं। फलस्वरूप अब हम इस प्रभाव से वस्तु या पिंड की गति सापेक्षीय निर्धारित करते हैं, जो हमारे प्रत्यक्ष का सहजबोध होता है परंतु माध्यम के सघन या विरल होने अथवा हवा (माध्यम) के प्रवाहित होने से भी सुनकर दूरी के अनुमान का हमारा सहजबोध डगमगा जाता है; तब हम पिंड की सही स्थिति निर्धारित नहीं कर पाते हैं और भ्रमित हो जाते हैं।

एक खोजकर्ता सदैव सहजबोध से बढ़कर असाधारण (distinctive) दावे प्रस्तुत करता है, जिससे कि लोग उस दावे को पढ़कर-सुनकर उससे आकर्षित होते हैं। उस खोजकर्ता को चाहिए कि वह अपने असाधारण दावे के लिए असाधारण प्रमाण (पूर्वानुमान या पूर्वाकलन) तथा सम्बंधित तर्क प्रस्तुत करे।

चंद्रमा को देखने से प्रतीत होता है कि हम जिस भी दिशा में चलते हैं, वह हमारे चलने पर उसी दिशा में चलता है और रुकने पर रुकता है। तब लेखक और पाठक के विपरीत दिशा में चलने से, विचार कीजिए चंद्रमा, लेखक के साथ चलेगा या पाठक के साथ? बेचारा एक ही चंद्रमा किस-किसका साथ निभाएगा। अब पाठक समझ ही गए होंगे कि यह सहजबोध भी एक भ्रम है, क्योंकि चंद्रमा और हमारे बीच की दूरी हमारे स्थान परिवर्तन के विस्थापन से लाखों गुना अधिक होती है। फलस्वरूप हम चंद्रमा और हमारे बीच की दूरी के सापेक्ष स्वयं की स्थिति-विस्थापन की दूरी में भेद नहीं कर पाते हैं और भ्रमित हो जाते हैं। बच्चों को एक शहर से दूसरे शहर या एक कॉलोनी से दूसरी कॉलोनी के बीच की दूरी हमारे और चंद्रमा के बीच की दूरी की तुलना में अधिक मालूम हो सकती है, क्योंकि चंद्रमा हमें दिखाई देता है परंतु इसके विपरीत दूसरे शहर या कॉलोनी की गतिविधियाँ हमें दिखाई नहीं देती हैं, इसलिए वे यह मान सकते हैं कि दूसरा शहर या कॉलोनी, चंद्रमा से हमारी स्थिति के सापेक्ष कहीं अधिक दूर अवस्थित हैं। इसीलिए विज्ञान में भौतिकीय राशियों का महत्त्व बढ़ जाता है, जो अपने आप में वस्तुनिष्ठ (Objective) ज्ञान होता है, इसलिए विज्ञान, प्रत्यक्ष तो है परंतु हमारी इन्द्रियों से ज्ञात सहजबोध नहीं है।

विशेष बिंदु : सहजबोध, वैज्ञानिक पद्धति का एक महत्त्वपूर्ण तत्व है।

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